कश्मीर : बर्फ़ और बंद के बीच


कश्मीर को या तो अख़बारों की सुर्ख़ियों में धधकता दिखाया जाता है या फिर कैलेंडरों पर फूलों से लदे हुए बाग़ की तरह, मगर इन दो इन्तेहाई नुक़्तों के बीच एक महीन डोर से झूलता कश्मीर कैसे पेंडुलम की तरह सामान्य से असामान्य के बीच का वक़्त गुज़ारता है, यह देखने के लिए कश्मीर की एक यात्रा ज़रूरी है। यह यात्रा न तो सैलानी की तरह तय की जा सकती है, और न ही पत्रकार की तरह खबरें बटोरते हुए। कश्मीर के नाज़ुक वर्तमान की बर्फीली सतह के नीचे दफ़्न उसका पथरीला इतिहास खंगालने के लिए गहरा उतरना ही पहली शर्त है।  कश्मीर की नींव रही यहाँ की कला, लोकाचार और वास्तुशिल्प की सीढ़ियाँ उतरते हुए एक सांस्कृतिक यात्री के तौर पर ही कश्मीर को समझा जा सकता है। 


लॉकडाउन से कई महीने पहले ही धरा 370 हटाए जाने पर कश्मीर की ज़िन्दगी पर अस्थाई तालाबंदी लगा दी गई थी, जिसके चलते डिजिटल ब्लैकआउट के अँधेरे में कोयलों की तरह ही धीमे-धीमे सुलग रहा था कश्मीर। कोविड लॉकडाउन ने अंतर्राष्ट्रीय सैलानियों के आने की उम्मीद पर भी पहरा लगा दिया, जिसके बाद सख्त हालात की बर्फ़ हटाते हुए आम कश्मीरी जन अपनी ज़िन्दगी की गाड़ी को मामूल की पटरी पर वापिस दौड़ाने की कोशिश में लगे थे। ज़बरवान पहाड़ों जैसे सख़्त अतीत और ज़ैना कदल जैसे जर्जर होते वर्तमान को एक नए सिरे से समझने के लिए जब मैंने यात्रा शुरू की, तब बर्फ़ज़दा कश्मीर को देख कभी गुनगुनाने का मन हुआ तो कभी बिलखने का। 


घाटी को जिसने जन्नत कहा होगा, उसने कहाँ सोचा होगा कि एक दिन इस जन्नत की पहरेदारी में ख़ाकी वर्दियाँ तैनात होंगी, केसर के मीलों फैले खेतों के इर्द गिर्द कंटीली तारें होंगी और शहर की दीवारों पर रंगीन पोस्टर नहीं बल्कि बगावती नारे लिखे जाएंगे। जिन सड़कों पर गुनगुनाते हुए टहला जा सकता था, वहां साईरन बजाते हुए फौजी दस्ते गश्त करेंगे और जिन जवानियों को पढ़-लिख कर ज़िन्दगी को नई सूरत देनी थी, वो बेरोज़गारी की भट्ठी में अपने दिन-रात झोंक रही होंगी। 


चिल्ला-ए-कलां यानि सख़्त ठण्ड के 40 दिनों से गुज़रते हुए भी कश्मीर बर्फ़बारी का स्वागत 'शीन मुबारक़' कहकर ही करता मिला है क्योंकि कृषि से लेकर पर्यटन तक आमजन की ज़िन्दगी की धुरी, 'शीन' यानि बर्फ के इर्द गिर्द घूमती है। बर्फ की रज़ाई के नीचे दुबककर बहुत देर सोने का सुख भी यहाँ मयस्सर नहीं क्योंकि बर्फ़बारी के बाद घंटों बिजली नदारद रहने के कारण मोमबत्तियों और जनरेटरों के सहारे पढ़ना-लिखना हो पाता है या घरेलू कामकाज निपटाए जाते हैं। 


डल झील में ऊँघती हाउसबोट की छतों पर से भी बर्फ हटाई जाती है और जमी हुई झील की सतह को चप्पू से काटते हुए शिकारा-वाले, सैलानियों के इक्के-दुक्के जोड़ों को हब्बा खातून और लल दद्द की दर्दमंद कहानियाँ सुनाया करते हैं।


फौजी दूरबीनें हरि परबत क़िले से चप्पे-चप्पे पर नज़र गड़ाए रहती हैं और डाउनटाउन की गलियों में भटकते हुए आपकी आँखें चुपके से कभी पुरानी दिल्ली का एहसास तो कभी अनारकली बाज़ार के नज़ारे देख लेती हैं। 


कंदूर से उठती कुलचों और गिर्दा (कश्मीरी रोटी) की महक अलसुबह सब गलियों में फैली रहती है और कांगडियों को फिरन में छुपाये आदमी-औरतें काम पर आते-जाते मिल जाते हैं। 


शहर की हद से दूर और आबादियों से परे, पुलवामा और अनंतनाग ज़िलों के दूर दराज़ छोर पर फैले हुए शिव, विष्णु और सूर्य मंदिरों के पुरातत्त्व अवशेषों को देखकर सभ्यता की गुमशुदा कड़ियाँ मिलने जैसा एहसास होता है। मट्टन के गाँवों में कश्मीरी पंडितों के खँडहर बनते मकानों को देखकर सियासी त्रासदियों का एक रेला सा स्मृति से गुज़रता है। 


मज़हबी खींचतान के फ़र्ज़ी जाल तब तार-तार होते हैं जब गुरुद्वारों, मंदिरों और मस्जिदों को हम यहाँ पीठ से पीठ सटाए हुए देखते हैं। यहाँ एक ही चाय की दुकान पर हिन्दू, सिख और मुसलमान हमप्याला भी होते हैं और सियासी चालबाज़ियों पर एक साँझा हुंकारा भी भरते हैं। 


चिनारों, सेब और बादाम के दरख्तों की हर शाख पर बर्फ का थोड़ा-थोड़ा नज़राना छिटका हुआ दिखता है। निशात, शालीमार और चश्मा शाही जैसे बाग़ भी शफ़ाफ़ बर्फीले गिलाफ़ के साये में फ़स्ल-ए-गुल का इंतज़ार करते मिलते हैं। एहतेजाज और रुदन का कोई मौसम नहीं होता, इसीलिए सियासी हादसों के बाद खामोश खालीपन को अक्सर नारे और आहें कुछ ही देर में भर देती हैं। और फिर झड़पों का सिलसिला आकर हर बार 'बंद' पर खत्म होता है। यह कुचक्र देखते-देखते कश्मीर का रूटीन हो गया है। 


कश्मीर की ज़रखेज़ जड़ों से रूहानियत का चश्मा भी फूटा और तसव्वुफ़ (सूफीवाद)  की शक्ल में इसकी धाराएँ झेलम के किनारे बसी सूफ़ी संत शाह-ए-हमदान की खानकाह-ए -मौला दरगाह से होते हुए चरार-ए-शरीफ में नुंद ऋषि की दरगाह तक जाती हैं। लिद्दर घाटी में एक ऊंचे टीले पर बसे ऐश्मुक़ाम में सूफी संत ज़ैनुद्दीन की दरगाह की ज़ियारत जितनी मुश्किल है, उतनी ही हैरतअंगेज़ है डाउनटाउन में बनी रौज़ा बल दरगाह, जहाँ माना जाता है कि हज़रत ईसा दफ़्न हैं जो अपने आखिरी दिनों में कश्मीर तशरीफ़ लाए थे और यहीं सुपुर्द-ए-ख़ाक भी हुए।  

कश्मीर की धार्मिक वास्तुकला भी एक ऐतिहासिक नमूना है यहाँ के बौद्ध, हिन्दू और इस्लामी प्रभाव को समझने का, क्योंकि खानकाहों और मस्जिदों की बनावट में बौद्ध पगोड़ानुमा छतें, मंदिरों के शिखर और महराबों की बनावट इस ज़मीन पर अलग अलग कालखंडों में सत्ताधीश रहे हुक्मरानों की पहचानें लिए हुए हैं। 


मार्तण्ड सूर्य मंदिर के अवशेष यूनानी वास्तु कला से प्रभावित दिखाई देते हैं, वहीँ अवन्तिपुर के मंदिर बौद्ध विहारों की छाप लिए हुए प्रतीत होते हैं। 


ईरान से भारत आये हमदानी जैसे सूफियों ने फ़ारसी कला और दस्तकारी के हुनर का बीज कश्मीर में बोया और देखते देखते पेपर-मशी, लकड़ी पर नक्काशी, शॉल की बुनाई, कानी कढ़ाई जैसे फन कश्मीर की पहचान बन गए। अफ़ग़ान शासकों ने यहाँ तंदूर/कंदूर और बचा-नग़्मा जैसी परम्पराओं को बढ़ावा दिया, वहीं मुग़ल शासकों ने यहाँ सीढ़ीनुमा बाग़ बनवाये। 

नून चाय या कहवा के घूँट लेते हुए तापमान के शून्य से भी नीचे  गिरने का एहसास थोड़ा कम हो जाता है। मैसूमा में मिलने वाले ज़ाफ़रानी हरीसा का ज़ायका इस कड़ाके की ठण्ड में नेमत की तरह ही मयस्सर होता है। गुश्तावा, तबक मांस, रोगन जोश जहाँ मांसाहारियों के स्वाद लिए मौजूद हैं, वहीं शाकाहारियों के लिए हाक़ साग, नदरू यखनी और दम आलू जैसे पकवान बनाये जाते हैं। 


बाहर चाहे गाँव कूचे बर्फ से जम रहे हों मगर अपनी गर्मजोशी भरी मेहमान-नवाज़ी से कश्मीरी आपके दिल को सराबोर कर देंगे। 


कश्मीर यात्रा की इन निशानियों का रंग ज़ाफ़रान की सुर्खी से भी ज़्यादा गहरी छाप छोड़ता है। इस रूहानी सफर की यादों को ज़र्द चिनार के पत्तों की तरह डायरी में संभाल कर रखा जा सकता है। बंद और बर्फ़ की सख्तहाली के बावजूद मेवों सी मुस्कान लिए सलामती की दुआएँ देते आम कश्मीरी नज़र और नज़रिये के सब चश्मे हटा देते हैं। कश्मीर दौरा बने-बनाये नज़रिए और सुने-सुनाये तजुर्बों से आज़ाद होने की एक यात्रा भी है। 

©️ ऐश्वर्या ठाकुर 
(ये लेख 17 जनवरी 2021 को 'प्रभात खबर' अखबार में प्रकाशित हुआ)

Comments

  1. क़ैद में की गयी ज़न्नत के दिल की तस्वीर,अखबारों और टेलीविजन की सुर्खियों के शिकंजे से बचे हुए खूबसूरत ज़ज्बातो को शब्दों में पिरो कर जो लामबंद किया है वह कबीले तारीफ़ | इस बर्फ़ से दबे इस कश्मीर के सफर की की कहानी में "काश" भी मिला और "मीर" भी | बेहतरीन

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  2. वाह! सब नज़रियों से परे एक नज़र। स्वच्छंद और सांस्कृतिक। सियासी नक्शों पर दूरबीन लगाकर एक गहराई की नज़र। अखबारों और कैलेंडर के बजाए गलियों से लिया गया एक नायाब चित्र।

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