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Showing posts from August, 2019

फौजी की आज़ादी

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भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर ली गयी ये तस्वीर दो फौजियों की है, एक भारतीय और दूसरा पाकिस्तानी। वर्दी के अलग रंगों के सिवा क्या फ़र्क़ है दोनों में? दोनों ही अपने-अपने देश की नौकरी बजा रहे हैं। दोनों ही हाड-माँस से बने हैं। फौज में शायद इसलिए भर्ती हुए हैं ताकि घर-परिवार चल सके। दोनों को ही देशभक्ति की चाबी भरकर इतने मुश्किल हालात में इन सियासी लकीरों की रखवाली करने के लिए झोंक दिया गया है। सियाचिन हो या जैसलमेर, बर्फ़ों में जूझते और रेतीले तूफानों से दो-चार होते हुए एक फौजी क्या ही सोचता होगा? आज़ादी के बारे में ही सोचता होगा यक़ीनन। फौजी को भी तो चाहिए आज़ादी  जंग से, खून से, धमाकों से, ठण्डी भारी राइफलों के बोझ से, मुश्किल पोस्टिंग से, सख़्त ड्यूटी से, माहली मजबूरियों से। इंसान ही तो हैं इस कड़क वर्दी के पीछे।

सोनचिरैया : बीहड़ और बारूद का पंचनामा

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फिल्म 'सोनचिरैया' में न तो फिल्म  Bandit Queen  वाली सहजता है, न ही सुशांत सिंह राजपूत  ,फिल्म  Highway  वाले महाबीर भाटी (रणदीप हूडा ) की ruggedness का मेल कर पाए हैं लेकिन एक डॉयलोग जो खंजर की तरह चुभता है वो है जब फूलन कहती है कि औरत की जात अलग होती है। ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया, शुद्र-ये सब मर्दों की जात होती हैं, औरत जात होती है इन सब से नीचे।  ख़ैर, मनोज बाजपाई  पहले ही सीन से दिल में जगह बना लेते हैं। विशाल भरद्वाज के संगीत ने अपना धीमा असर भी छोड़ा मगर  फिल्म 'सोनचिरैया' में न तो फिल्म  Bandit Queen  वाली सहजता है, न ही सुशांत सिंह राजपूत  ,फिल्म  Highway  वाले महाबीर भाटी (रणदीप हूडा ) की ruggedness का मेल कर पाए हैं लेकिन एक डॉयलोग जो खंजर की तरह चुभता है वो है जब फूलन कहती है कि औरत की जात अलग होती है। ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया, शुद्र-ये सब मर्दों की जात होती हैं, औरत जात होती है इन सब से नीचे।  कहानी के हिसाब से  कमज़ोर भी रहा।  थोड़ी अतिनाटकीय तो है पर फ़िल्म के खत्म...

हामिद: एक सियासी ट्रेजेडी

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फिल्म ' हामिद' का ट्रेलर देखने के बाद से इस फ़िल्म का बहुत इंतज़ार था मुझे। 'हैदर' जहाँ कश्मीर की उथल-पुथल से मुतासिर एक नौजवान की कहानी कहती थी, वहीं 'हामिद' ने इस सियासी ट्रेजेडी को एक बच्चे की नज़र से दिखाया है। दोनों ही फिल्मों के नायक अपने खोये हुए पिता को ढूंढ रहे हैं, अपने-अपने तरीके से। फ़िल्म बहुत ही धीमी रफ़्तार से चलती है, जैसे दर्दमंद दिन कटते नहीं हैं न, वैसे ही। खूँखार हालात में मासूम उम्मीदें पालता एक बच्चा, एक 'हाफ-विडो' माँ की मामूल की मुश्किलात और एक फौजी का अंतर्द्वंद पूरे नैरेटिव को बैलेंस करता है। फ़िल्म कोई हल पेश नहीं करती; हालात न तो हामिद बदल पाता है, न फ़ौजी अभय कुमार मगर बेबसी में अंदर से दोनों ही पत्थर हो जाते हैं। कितना ironic है ना? फ़िल्म का हर सीन ख़ूबसूरत है। वक़्त निकाल कर देख लीजिये नेटफ़्लिक्स पर। मरने-मारने की सनक से भरे इन दिनों में इंसानियत की बात कहती एक फ़िल्म बेशक़ देखी जानी चाहिए।