एक अनसुना नायक: नत्थूराम





मेरे शहर का एक आम से भी आम आदमी था नत्थू राम, मगर उसका सरल स्वभाव उसे हमारे लिए तो सबसे खास बनाता था। ताराचंद का छोटा भाई नत्थू राम, जो ट्रक-ड्राइवरी करता था, अपनी उम्र में एक लड़की के प्रेम में पड़ा जिसके घरवालों ने उनकी शादी से साफ इंकार कर लड़की को एक फौजी से ब्याहना बेहतर समझा। इसके बाद नत्थू का दिल ऐसे टूटा कि वियोग में जोगी की तरह अपना टूटा दिल और टूटा ट्रक लिए वो महीनों हिमाचल के पहाड़ों में फिरता रहा। कितनी ही बार एक्सीडेंट हुए, ट्रक समेत गहरी खाइयों में गिरते-गिरते बचा मगर रुकने को रूह ही नहीं मानती थी अब उसकी। लेकिन बड़े भाई ताराचंद की अकाल मौत उसके बंजारे कदमों को वापिस घर मोड़ लाई। ताराचंद अपने पीछे छोड़ गया था एक बीवी, तीन छोटे बच्चे और एक राशन का डीपो; जिनमें से किसी की भी ज़िम्मेदारी उठाने का उसे एक फीसदी भी तज़ुर्बा नहीं था। मगर ऐसे में भाभी की समझदारी और फ़ूड सप्लाइज के एक लोकल-अफसर की मदद से नत्थू राम ने काम अपने ज़िम्मे ले लिया। अब हर 15 दिन बाद अपने ट्रक में राशन लाता, कार्ड-धारकों को मिट्टी का तेल और गेहूँ बाँटता और डिपो की कमीशन से घर ख़र्च और भतीजे-भतीजियों की पढ़ाई पूरी करवाता। राशन की इसी कतार में अक्सर लगने वाली एक आम औरत नत्थू को रिझाने लगी और अपनी मज़दूर-नुमा ज़िन्दगी में उसे भी इस औरत की दस्तक भाने लगी। मगर 7 छोटे बच्चों की माँ ये औरत, जो लोगों के घरों में बर्तन साफ करके गुज़ारा करती थी, नत्थू के अलावा और भी कई थके-हारे आदमियों को छाया देती थी, जो नत्थू को पसंद नहीं था। पति के छोड़ कर जाने के बाद से ये अकेली औरत अपने बच्चों को कई जतनों से पाल रही थी और नत्थू से एक स्थायी आश्रय की उम्मीद रखती थी पर बढ़ती उम्र, भाभी और भतीजे-भतीजियों की ज़िम्मेदारी से लदा नत्थूराम एक खटारा ट्रक की तरह बेबसी में हाँफ जाने के सिवा और कुछ नहीं कर सकता था। और इसी तरह वो औरत नत्थू की ज़िंदगी से हमेशा के लिए रवाना हो गयी और राशन ढोता हुआ नत्थू राम वापिस डिपो पर लग गया।
 शहर के कितने ही लोग नत्थू राम की मददगार प्रवृति के चलते उससे बेगार करवाते रहते। कभी अपने ट्रक पर वो किसी के टूटे-फूटे सोफे ढोता, कभी गाँव से कनक लाकर चक्की पर पहुंचाता, कभी जगरातों के लिए शामियाना लगाता, कभी किसी गली का रुका हुआ गटर साफ करता, कभी किसी की बेटी को स्कूल छोड़ कर आता, कभी किसी को हस्पताल पहुँचाता। वक़्त ने नत्थूराम को मालगाड़ी के एक डिब्बे में तब्दील कर दिया जिसका काम ढो-ढुलाई से बढ़कर कुछ न था। 
और ऐसे ही एक सुबह किस्मत को शायद नत्थूराम का बकाया मेहनताना देने का ख्याल आया होगा जिस दिन उसके नाम पड़े एक बेकार प्लॉट का 1 करोड़ का ग्राहक उसे मिल गया और वो फौरन ही ज़मीन की रजिस्ट्री करवा सारा पैसा नत्थूराम के सुपुर्द कर गया। नत्थू ने इतना पैसा कभी एकसाथ देखना तो दूर, कल्पित भी नहीं किया था और भाभी भी इतना पैसा पाकर ठिठक गयी थीं। संयोग ही था कि उसी दौरान नत्थूराम का एक पुराना दोस्त कर्ज़ के नीचे दबकर अपना मकान और धंधा बेचकर गाँव जाने की तैयारी में था। और वही हुआ, नत्थूराम ने एक बैरागी साधु की तरह बिना कुछ सोचे अपनी झोली का भी अन्न उसके दामन में डाल दिया। नत्थूराम अपने घर आये पैसे को बिना किसी लिखा-पढ़ी के अपने दोस्त को दे आया और सुदामा होकर भी उसने कृष्ण को अपनी दरियादिली की नेमत से राजा बना दिया। 
मेरी समझ से तो फ़िल्म 'हाईवे' के महाबीर भाटी, 'हिंदी मीडियमके श्याम प्रकाश या सुदामा जैसे चरित्र नत्थूराम जैसे किरदारों को देखकर ही लिखे गए होंगे जिन्होंने आम आदमी होकर भी अनथक अच्छे काम किये, बगैर किसी कहानी का नायक होने का मोह पाले। बैकग्राउंड में चलती नत्थूराम जैसी कहानियों को हमारे अनदेखा करने से वो घटित होना बंद नहीं हो जातीं। एक मालगाड़ी के डिब्बे की तरह ज़िम्मेदारियों का बोझ ढोते नत्थूराम जैसे क़िरदार ही हक़ीक़त के रंगमंच के असली नायक होते हैं। 

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