गाय पर दुधारू राजनीती | Milking the political cow

'गाय होने' की उपमा अक्सर बेहद भोले और आज्ञाकारी लोगों के लिए दी जाती है। धार्मिक चित्रणों में भी गाय या बैल को ईश्वर के आज्ञाकारी आराधक के तौर पर दर्शाया जाता रहा है, जो अपने आराध्य के प्रभामंडल से अभिभूत दिखाई देते है। हरप्पा सभ्यता में भी बैल की छवि लिए हुए मोहरें मिलती है जो दर्शाती हैं की इस प्रजाति विशेष को मानव ने शुरू से ही आदरणीय स्थान दिया है। एक समय में कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिन्ह तक बैलों का जोड़ा था, जो की आगे चलकर गाय और बछड़ा भी हुआ। समय बीतता गया पर गाय का स्थान भारतीय संस्कृति में बरकरार रहा, चाहे वह आराध्य से गिरकर आवारा होने तक का ही क्यों न रहा हो। और आज समय ये है कि गाय का राजनैतिक दोहन भी उतनी ही असंवेदनशीलता के साथ किया जा रहा है, जितना कि इसका व्यावसायिक दोहन हो रहा है। 'बेटी बचाओ' की तर्ज़ पर 'गौ-रक्षा' अभियान भी खूब ज़ोर-शोर से चल रहा है और इस अभियान की अगुवाई...