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Showing posts from March, 2017

गाय पर दुधारू राजनीती | Milking the political cow

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'गाय होने' की उपमा अक्सर बेहद भोले और आज्ञाकारी लोगों के लिए दी जाती है। धार्मिक चित्रणों में भी गाय या बैल को ईश्वर के आज्ञाकारी आराधक के तौर पर दर्शाया जाता रहा है, जो अपने आराध्य के प्रभामंडल से अभिभूत दिखाई देते है। हरप्पा सभ्यता में भी बैल की छवि लिए हुए मोहरें मिलती है जो दर्शाती हैं की इस प्रजाति विशेष को मानव ने शुरू से ही आदरणीय स्थान  दिया है।                                                   एक समय में कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिन्ह तक बैलों का जोड़ा था, जो की आगे चलकर गाय और बछड़ा भी हुआ। समय बीतता गया पर गाय का स्थान भारतीय संस्कृति में बरकरार रहा, चाहे वह आराध्य से गिरकर आवारा होने तक का ही क्यों न रहा हो। और आज समय ये है कि गाय का राजनैतिक दोहन भी उतनी ही असंवेदनशीलता के साथ किया जा रहा है, जितना कि इसका व्यावसायिक दोहन हो रहा है। 'बेटी बचाओ' की तर्ज़ पर 'गौ-रक्षा' अभियान भी खूब ज़ोर-शोर से चल रहा है और इस अभियान की अगुवाई...

पंजाब के पदचिन्ह | Footprints of Punjab

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  सिर्फ कहने को ही मेरा गाँव और शहर पंजाब में नहीं हैं ; बाकि बोली, पहनावा, खान-पान, लोक-गीत, रीति-रिवाज सब पंजाबियत की मिठास लिए हुए है ! हो भी क्यों न, पेप्सू रियासत की अनमिट छाप अब भी यहाँ पर बर-अक्स कायम है ! १९६६ में सिर्फ सूबे अलग हुए थे, पंजाबी सभ्याचार के टुकड़े तो १९४७ भी न कर सका था !  मुझे 'माँ-बोली' का असल मतलब तो हमेशा 'पंजाबी' ही समझ में आया क्योंकि माँ को हिंदी बोलते-बोलते पंजाबी ही बोलते देखते रही ; स्वाभाविक तौर पर कैसे माँ की ये जुबां, पंजाबी की चिकनी पगडंडियों पर भटक जाती थी; मानो पंजाब में छूटे अतीत को पंजाबी अक्षरों से बीन कर लाने की कोशिश कर रही हो ! ऐसा ही कुछ बचा-कुचा पंजाब पापा में भी धड़कते देखा जो कभी पंजाबी लोक-गीत सुनकर फूट कर रिसने लगता या कभी वडाली बंधुओं के गीत सुनकर फसलों की तरह झूम उठता !  मुझमें पंजाब के बीज यहीं घर से ही बोये गए पर ये बीज पौध बन कर तब उगने लगे जब मालवा के दिल में बसी अपनी यूनिवर्सिटी में दाखिला हुआ ! हरे-हरे खेतों से घिरी यूनिवर्सिटी तक आने वाला लंबा रास्ता कई छोटे-बड़े पंजाबी कस्बों गाँवों से होता हुआ गुज़रता थ...