ईलाज
"फसल कैसी हुई अबकी बार ?" अपनी गद्दीदार पहिये-वाली कुर्सी पर डोलते हुए डॉक्टर गुप्ता पूछता तो गाँव से आई हुई मरीज़ अपना दर्द और झिझक भुला कर ज़रा सहज हो जाती ! मरीज़ों से बतियाते और चुटकुले सुनाते हुए डॉक्टर गुप्ता इंजेक्शन में दवाई भरता और अपने मोटे-मोटे चश्मों से बाज़ की तरह मरीज़ को ढूंढता !
"डॉक्टर साब ! मैं तो अपनी घरवाली के बुखार की दवाई लेने आया था ! आपने तो 'टीका' भी बना दिया !"
"तुमने पहले नहीं बताया की घरवाली घर पर है ! अब तू ही लगवा ले टीका, बुखार का ही तो है ! कोई बिगाड़ नहीं करता ! और दवाई महंगी आती है, भई !"
डॉक्टर गुप्ता हँसते-हँसते मरीज़ के पति को ही इंजेक्शन लगवाने के लिए मना लेते और डॉक्टर साहब का रुतबा और मान इलाके में यूँ था की कोई इन्हे मना भी नहीं कर सकता था ! अपनी किरकिराती कुर्सी पर झूलते हुए डॉक्टर गुप्ता आने वाले मरीज़ों से गाँव-शेहेर की पूरी खबर-सार लेता रहता ! दोपहर को क्लिनिक बंद करके घर जाते हुए सब्जीवाले की दुकान से चुन-चुन कर ताज़ी सब्ज़ियाँ-फल लेता और ५-८ किलो का थैला हाथ में उठाये शान से घर जाता ! डॉक्टर गुप्ता की कोठी शहर की चुनिंदा इमारतों में से थी; देखने वाले बताते हैं की बैठक के बीचों-बीच से एक सीढ़ी पहली मंज़िल में जाती थी और डॉक्टर साहब की बीवी सोने और रेशम से लदी जब सीढ़ियों से नीचे बैठक में उतरती हैं तो किसी महारानी से कम नहीं लगती ! डॉक्टर साहब कोठी के आगे लॉन बनवाने शहर के पहले आदमी थे ! सबसे मशहूर तो डॉक्टर गुप्ता की भैंस का 'कमरा' था; जिसमे लगवाए हुए पँखे का ज़िक्र शहर का हर आम-ख़ास आदमी करता था ! डॉक्टर गुप्ता की तुकबंदी, सादगी, साफ़गोई और तज़ुर्बे के कायल लोग किसी और डॉक्टर की तरफ देखते भी न थे !
और एक दिन डॉक्टर-गुप्ता अपने मरीज़ों को लाईलाज छोड़ चल बसे !
बेटा रूस से डॉक्टरी की पढ़ाई करके आया था ! उसे अपने पिता का क्लिनिक विरासत में मिला तो उसने सबसे पहले पिता की 'किरकिराने वाली गद्दीदार पहिये-वाली कुर्सी' बदलवाई ! जब कबाड़ीवाला, डॉक्टर गुप्ता की कुर्सी को रिक्शे पर लाद रहा था, तो आसपड़ोस के दुकानदारों समेत रूटीन के मरीज़ों की आँखें भी नम हो गयी थी !
शहर छूट गया ! आज शहर की सूरत बदली हुई है ! देखा-देखी में न जाने कितने वारिसों ने पुरखों की पुरानी ईमारतें कबाड़ बता कर गिरवा दी ! कोई लाइलाज़ छूत की बीमारी लगती है ! ऐसे में .... डॉक्टर गुप्ता का ईलाज बहुत याद आता है !
"डॉक्टर साब ! मैं तो अपनी घरवाली के बुखार की दवाई लेने आया था ! आपने तो 'टीका' भी बना दिया !"
"तुमने पहले नहीं बताया की घरवाली घर पर है ! अब तू ही लगवा ले टीका, बुखार का ही तो है ! कोई बिगाड़ नहीं करता ! और दवाई महंगी आती है, भई !"
डॉक्टर गुप्ता हँसते-हँसते मरीज़ के पति को ही इंजेक्शन लगवाने के लिए मना लेते और डॉक्टर साहब का रुतबा और मान इलाके में यूँ था की कोई इन्हे मना भी नहीं कर सकता था ! अपनी किरकिराती कुर्सी पर झूलते हुए डॉक्टर गुप्ता आने वाले मरीज़ों से गाँव-शेहेर की पूरी खबर-सार लेता रहता ! दोपहर को क्लिनिक बंद करके घर जाते हुए सब्जीवाले की दुकान से चुन-चुन कर ताज़ी सब्ज़ियाँ-फल लेता और ५-८ किलो का थैला हाथ में उठाये शान से घर जाता ! डॉक्टर गुप्ता की कोठी शहर की चुनिंदा इमारतों में से थी; देखने वाले बताते हैं की बैठक के बीचों-बीच से एक सीढ़ी पहली मंज़िल में जाती थी और डॉक्टर साहब की बीवी सोने और रेशम से लदी जब सीढ़ियों से नीचे बैठक में उतरती हैं तो किसी महारानी से कम नहीं लगती ! डॉक्टर साहब कोठी के आगे लॉन बनवाने शहर के पहले आदमी थे ! सबसे मशहूर तो डॉक्टर गुप्ता की भैंस का 'कमरा' था; जिसमे लगवाए हुए पँखे का ज़िक्र शहर का हर आम-ख़ास आदमी करता था ! डॉक्टर गुप्ता की तुकबंदी, सादगी, साफ़गोई और तज़ुर्बे के कायल लोग किसी और डॉक्टर की तरफ देखते भी न थे !
और एक दिन डॉक्टर-गुप्ता अपने मरीज़ों को लाईलाज छोड़ चल बसे !
बेटा रूस से डॉक्टरी की पढ़ाई करके आया था ! उसे अपने पिता का क्लिनिक विरासत में मिला तो उसने सबसे पहले पिता की 'किरकिराने वाली गद्दीदार पहिये-वाली कुर्सी' बदलवाई ! जब कबाड़ीवाला, डॉक्टर गुप्ता की कुर्सी को रिक्शे पर लाद रहा था, तो आसपड़ोस के दुकानदारों समेत रूटीन के मरीज़ों की आँखें भी नम हो गयी थी !
शहर छूट गया ! आज शहर की सूरत बदली हुई है ! देखा-देखी में न जाने कितने वारिसों ने पुरखों की पुरानी ईमारतें कबाड़ बता कर गिरवा दी ! कोई लाइलाज़ छूत की बीमारी लगती है ! ऐसे में .... डॉक्टर गुप्ता का ईलाज बहुत याद आता है !
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