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हिस्ट्री डिग्री सेल्सियस

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मेरे अपने बुद्धिजीवी मित्र, जिनमें कई शिक्षाविद भी शामिल हैं, अक्सर किसी भी ऐसी ऐतिहासिक व्याख्या को, जो उनकी विचारधारा से मेल नहीं खाती, " व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ज्ञान " कहकर खारिज कर देते हैं। इनका मत यह भी रहता है कि इतिहास पर आखिरी मोहर एक प्रशिक्षित इतिहासकर की ही हो, तभी वह प्रमाणिक कहलाएगा। मज़े की बात यह है कि यही बौद्धिक जन अक्सर ऐसे टिप्पणीकारों और विशेषज्ञों को अपने पैनल, पॉडकास्ट और सेमिनारों में इतिहास पर परिचर्चा के लिए बुलाते हैं, जो खुद ' औपचारिक' तौर पर इतिहासकार (यानि इतिहास में स्नातक/स्नातकोत्तर) नहीं होते। मगर बावजूद इसके, ये इतिहास विशेषज्ञ और स्व-प्रशिक्षित इतिहासकार अपनी वैचारिकी के आधार पर अपना पक्ष बड़ी मज़बूती से रखते हैं।  उदाहरण के लिए, राम पुनियानी को लें जो अक्सर प्रतिष्ठित मंचों पर इतिहास पर चर्चा करते दिखते हैं। असल में, वे पेशे से एक मेडिकल शोधकर्ता और डॉक्टर हैं। इतिहास में उनकी 'रुचि' उन्हें ऐतिहासिक तथ्यों पर आधिकारिक तौर पर टिप्पणी करने के लिए योग्य नहीं ठहरा सकती। लेकिन उन्हें इसलिए आमंत्रित किया जाता है क्य...

मौला

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कहानी देश के विभाजन से पहले की है। काँगड़ा के पहाड़ों में बसे एक छोटे से गाँव के राजपूत टोले में एक परिवार रहता था। घर में दो बेटे और माँ बाप। म्हाली हालात कमज़ोर मगर मेहनत से न डरने वाले लोग। छोटे छोटे खेतों की पट्टियों को भी अपने पुरुषार्थ से इन किसानों ने शक्कर जैसा बना रखा था। दोनों लड़के कायदे से रोज़ गाँव के मदरसे में जाया करते। जी हाँ, पहले स्कूलों को मदरसा ही कहते थे हमारे बुज़ुर्ग; जब तक माँ बोली और सूबा आंदोलनों ने भाषा को फ़िरकों में नहीं बाँटा था।  तो हाँ, दोनों लड़के कायदे से रोज़ गाँव के मदरसे में जाया करते। गाँव का रास्ता जिन संपन्न ज़मींदारों के घर के आगे से होकर गुज़रता, उनके यहाँ सब इन दोनों भाईयों की टाट से बनी वर्दी और टखने से ऊँचे पजामे देखकर हँसते। उस घर की बेटियाँ आते-जाते इन भाईयों की टांगों पर शहतूत की लकड़ी से शरारतन वार भी किया करतीं। पर समाजी लिहाज़ और ज़िम्मेदारी के बोझ से लदे दोनों लड़के फिर भी सिर झुकाए अपने काम पर बदस्तूर आते जाते।  बड़ा भाई पढ़ने में होशियार था, उसने उस ज़माने में दसवीं कर ली और देखते-देखते उसे पटवारी की नौकरी भी मिल गई...