न्याय का अर्थशास्त्र
कनॉट प्लेस के शोरगुल में खामोश बैठी रक्षा बड़ी देर से उस पटरी वाले के पास रखी 'न्याय की मूर्ती' को देख रही थी। आँखों पर पट्टी बाँधे 'न्याय की देवी' इस बाज़ार में बिकने को तैयार खड़ी थी। उसे देखते हुए कानून की सारी हल्की कागज़ी व्याख्याएँ रक्षा के सामने नाचने लगीं और पिछले एक साल के सब तजुर्बे एक कड़वे कैप्सूल की तरह उसके हलक़ में अटक गए।
ऐसे ही पिछली पतझड़ में उसने लॉ कॉलेज में बतौर सहायक प्रोफेसर पढ़ाना शुरू किया था। स्टाफरूम की सियासत से पिंड छुड़ाकर रक्षा अक्सर बाहर बगीचे में आजाया करती थी, जहाँ खाली लेक्चर वाले बच्चों के टोले बैठकर पढ़ते या बतियाते मिलते। फर्स्ट ईयर की लड़कियों से रक्षा का आत्मीय तालमेल बैठ गया था, इसीलिए फ्रेशर अक्सर उसे घेरकर सवाल-जवाब और ठिठोली करते रहते।
उन्हीं दिनों सेकंड ईयर की एक छात्रा नीलमप्रभा रक्षा के पास आकर बैठने लगी। यूँ तो नीलमप्रभा क्लास में ज़्यादातर चुपचाप ही रहती थी लेकिन पढ़ने में अच्छी थी, बस आत्मविश्वास की कमी थी। रक्षा को कैंटीन में देखकर या खाली लेक्चर के दौरान बगीचे में पाकर नीलमप्रभा उसके इर्द गिर्द घूमती रहती या चुपचाप पास आकर बैठ जाती। रक्षा उससे क्लास और पढ़ाई के बारे में सरसरी बातें पूछ लिया करती थी, लेकिन नीलमप्रभा की आँखों में तैरते सवाल रक्षा समझ नहीं पाती थी। वह सोचती कि जैसे आमतौर पर युवा छात्राएँ अपनी प्रोफ़ेसरों से प्रभावित होकर उन्हें गौर से देखती हैं, वैसे ही नीलमप्रभा उसे देखती-समझती रहती है।
एक दिन ऐसे ही रक्षा को नीलमप्रभा ने लाइब्रेरी के बाहर पाया और उसके गले लग फफक कर रोने लगी। रक्षा ने उसे हौसला देकर किसी तरह चुप करवाया और लॉन में लेजाकर इस तरह रोने का कारण जानना चाहा। नीलमप्रभा के सब्र का बांध रक्षा के सामने ऐसा टूटा कि उसके आँसुओं की धार थमती ही नहीं थी।
"मैम, कोई मुझसे बात नहीं करता ठीक से। एक साल से अकेले ही रहती हूँ क्लास में। नोट्स की या कुछ और बात भी करो तो सब अनसुना कर चल देते हैं।"
"ऐसा क्यों भला, नीलम ? पिछले एक साल में एक भी दोस्त नहीं बना तुम्हारा ?"
"मैम , दोस्त तो कैसे बनते ! प्रोफ़ेसर तक मुझसे ठीक से बर्ताव नहीं करते ! मैं शेडयूल्ड़ कास्ट हूँ, शायद इसीलिए !"
"नीलमप्रभा ! यह क्या कह रही हो? ऐसे भेदभाव कौन करेगा भला ? इतने पढ़े लिखे प्रोफेसर ? तुम्हें ऐसा क्यों लगा ?"
"मैम, ऐसा व्यवहार मैं समझती हूँ। एक बार अंजना मैम और उनका गुट स्पोर्ट्स-डे पर लॉन में खड़ा था। मैं भी वहां जाकर खड़ी हो गयी तो उनमें से एक प्रोफेसर ने कहा कि दूर होकर खड़ी हो जाओ। तुम्हारी परछाईं हमपर पड़ रही है। सारी धूप रोक रखी है। मैम , मेरे दलित होने के कारण उन्हें मेरा साया तक नामंज़ूर है।"
रक्षा ठंडी पड़ गयी थी। नीलमप्रभा की बातों पर विश्वास न करने की कोई वजह नहीं थी और अविश्वास इस बात का था कि इतने सभ्रांत माहौल में भी जातीय छुआछूत के कीटाणु पनप रहे थे। यह बीमारी इतने साफ़ सुथरे समाज में भी पल सकती है, इस बात से रक्षा सकते में आ गयी थी।
उसने नीलमप्रभा को किसी तरह समझा बुझा कर हौसला दिया कि वह उसके साथ है और नीलमप्रभा को इस पूरी घटना की शिकायत एडमिन से करनी चाहिए। नीलमप्रभा का उतरा हुआ चेहरा देखकर उसे और कुछ नहीं सूझता था। उसने दोबारा समझाने की कोशिश की, "नीलम देखो ! यहाँ हम कानून की पढाई करने-कराने आये हैं। कानून की ईमारत न्याय की बुनियाद पर खड़ी होती है। तुम्हें कल वकील बनकर औरों को इन्साफ दिलाना है लेकिन सबसे पहले अपनी और अपने स्वाभिमान की जंग लड़नी है। हौसला करना पड़ेगा। मैं तो तुम्हारे साथ हूँ ही।"
नीलमप्रभा ने जैसे तैसे खुद को संभाला और वापिस क्लासरूम में चली गयी मगर रक्षा के दिल पर जैसे किसी ने बर्फ़ की भारी सिल्ली रख दी थी, जो बूँद-बूँद नीलामप्रभा के आँसुओं की तरह टपक रही थी। घर जाकर भी रक्षा इन्हीं ख्यालों में खोई रही कि एक लड़की के कच्चे मन पर किसी की नुकीली बातों का कितना गहरा ज़ख्म छूटा है।
अगले दिन से दिवाली की छुट्टियाँ शुरू हो गईं और घर के कामों में उलझकर रक्षा कॉलेज की दुनिया को भूल सी गई। लेकिन दिवाली की अगली ही सुबह रक्षा का फोन बजा और एक सहकर्मी प्रोफ़ेसर ने बताया कि नीलमप्रभा ने खुदखुशी कर ली है। रक्षा के पैरों तले से ज़मीन दरक गई। नीलमप्रभा नहीं रही ? उस दिन तो रक्षा ने उसे इतना हौसला दिया था, लड़ने की ताकत दी थी, उसका साथ देने का वादा किया था। फिर क्यों उसने हार मान ली ? बताया गया कि नीलमप्रभा ने खुद को आग लगा ली थी और उसे जलते हुए भागते हुए कई लोगों ने देखा था। सारे शहर में दहशत और हैरानी थी। खबर मिली कि नीलमप्रभा ने एक सुसाइड नोट लिख छोड़ा था, जिसमें उन सब प्रोफ़ेसरों और छात्रों के नाम थे, जिनके भेदभावपूर्ण व्यवहार से आहत होकर उसने जान देने का फैसला किया था। लॉ कॉलेज के सीनियर प्रोफेसरों के नामज़द होने के बाद कॉलेज प्रशासन ने छुट्टियाँ बढ़ा दीं। चर्चा मीडिया में आने के बाद कॉलेज की बदनामी होने लगी। खबरों में आया कि नीलमप्रभा के घरवालों को दलित नेताओं और एक्टिविस्टों का समर्थन मिला तो एफआईआर भी हुई और कॉलेज प्रशासन को आंतरिक जाँच भी बैठानी पड़ी।
बारी-बारी स्टाफ में सबके बयान दर्ज किए गए। इस कार्यवाही के दौरान कॉलेज की ही एक प्रोफेसर सुधा ने रक्षा से कहा, "मैं तो इस मामले में नहीं पड़ने वाली, रक्षा। बाद में कोर्ट-कचहरियाँ कौन करता रहेगा ! अच्छे घरों की लड़कियाँ कोर्ट की दहलीज़ चढ़तीं कोई अच्छी लगती हैं ?!"
"अच्छे घरों की लड़कियाँ"
रक्षा के मन में यह अल्फ़ाज़ शूल की तरह गड़ गए थे। जो प्रोफ़ेसर नीलमप्रभा के साथ भेदभाव करते रहे, उसे कमतरी का एहसास करवा कर निराशा के अन्धे कुँए की ओर धकेलते रहे, वे 'अच्छे घरों के लोग' आज अपना दामन कचहरी की कालिख से स्याह नहीं करना चाहते। लेकिन यही 'अच्छे घरों के लोग पोथियाँ पढ़कर न्याय व्यवस्था पर लम्बे चौड़े तज़किरे करते मिलेंगे।
रक्षा ने नीलमप्रभा के हक़ में गवाही देने का फैसला कर लिया था। एक वही थी, जिसने आखिरी बार उस बेबस और भावुक लड़की की आपबीती सुनी थी। चाहे उसे नौकरी से निकाल ही क्यों न दें, रक्षा गवाही देगी।
अगले दिन रक्षा अपनी सारी हिम्मत बटोरकर थाने पहुँची। नीलमप्रभा के परिवार की तरफ से ट्रेक्टर-ट्रॉल्लियाँ भर-भर के लोग आते थे और थाणे के सामने धरना देकर बैठ जाते थे। सबके हाथों में "हमें न्याय चाहिए" की पट्टियाँ लहराती थीं। कुछ नीले गमछे वाले माइक लगाकर दलित भाइयों को संगठित होने और न्याय मांगने के लिए बार बार हुंकारते। रक्षा को २-३ बार पुलिसिया पूछताछ के लिए बुलाया गया। अपना बयान दर्ज करके रक्षा को लगा जैसे उसने न्याय की देवी की तकड़ी में सच वाले पलड़े में मुट्ठीभर सच अपना भी जोड़कर थोड़ा भार और बढ़ा दिया है।
लेकिन कुछ हफ़्तों बाद लोकल अख़बार में एक छोटी सी खबर कोने में लगी दिखी, जिसमें लिखा था :
"छात्रा नीलमप्रभा के परिजनों को मिला न्याय। लॉ कॉलेज और नीलमप्रभा के पिता के बीच हुआ समझौता। सूत्रों से खबर मिली है कि नीलामप्रभा की छोटी बहन को कॉलेज की हाउसकीपिंग स्टाफ में नौकरी दी जाएगी और नीलम के परिवार को तकरीबन २५ लाख रूपये की धनराशि बतौर औपचारिक मुआवज़ा मिली है।"
रक्षा ने घिन्ना कर अख़बार दूर फेंका। न्याय की तख्तियाँ उठाए हुए परिजनों ने मुआवज़े को अपना लिया ? न्याय और मुआवज़े के बीच एक अनैतिक गठबंधन कर दिया ? यह केस तो एक नज़ीर बन सकता था जातीय छुआछूत और भेदभाव के खिलाफ। परिवारजनों ने नीलमप्रभा को मरने के बाद एक बार दोबारा आग के हवाले कर दिया था। न्याय का पलड़ा हवा में लहराता रह गया, उन "हमें न्याय चाहिए" वाली हलकी पट्टियों की तरह और मुआवज़े की खनक ने तराज़ू के दुसरे पलड़े को झुका दिया था।
रक्षा ने एक लम्बी साँस भरते हुए खुद को समेटा और पटरी वाले के पास जाकर उस 'न्याय की मूर्ती' का दाम पूछ ही लिया। पटरी वाले ने दाम बताया तो रक्षा ने थके हुए भाव से कहा, "बहुत ज़्यादा है...." पटरी वाले का तुरंत जवाब आया, "यह न्याय की मूर्ती है, मैडम। न्याय तो महँगा ही होता है !" कितनी सही बात कही थी उस आदमी ने। जब कानून के तराज़ू में इन्साफ और मुआवज़े को तौला जाता है, तब अक्सर मुआवज़े का पलड़ा ही भारी पड़ता है।
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