ऐश ट्रे: ठंडी राख से भी हल्की दुनिया के अफसाने


हैदर रिज़वी की लिखी और मैनड्रेक पब्लिकेशंस से आई किताब 'ऐश ट्रे' को एक ही घूंट में पढ़कर ख़त्म किया है और सोच रही हूं कि बतौर लेखक, हैदर रिज़वी कितने हस्सास हैं, इसकी तस्दीक उनके लेखन ने कर दी है। 'ऐश ट्रे' की संरचना जॉनर या शैली की नियमित दीवारें तोड़ती है। कविता कहीं कहानी का इंजन बन जाती है, कहीं कहानी ही कविता को किनारे लाकर छोड़ जाती है। किताब आम आदमी की जुबान में लिखी गई है और व्याकरण या शब्दावली इतनी भारी भरकम कतई नहीं हैं कि कहानी के वजूद पर बोझ डाले। 

बतौर अफ़सानानिगार, हैदर रिज़वी पॉलिटिकली करेक्ट होने के फेर में नहीं पड़ते, बल्कि बड़ी बेबाकी से अपनी बात लिखते हैं। आदर्शवाद के मखमली बयानों से परे यथार्थ की खुरदरी ज़मीन पर खड़ी कहानियां मंटो की याद भी दिलाती हैं। हैदर स्त्री-मन की पेचीदा गलियों से लाकर कहानियां हूबहू सामने रखते हैं, एक स्त्री के बयान की शक्ल में। दंगों की हूक से गूंजती कहानियां एक सिहरन पैदा कर जाती हैं, गोया आप एक चश्मदीद की तरह मौके पर खड़े होकर सब देख रहे हों। 

अफसाने तो बाद में आते हैं, लेकिन बंबई के अनहद आकाश में चुग्गे की तलाश में भटकते परिंदेनुमा लेखक की तड़पन भूमिका की तरह किताब के पहले सिरे में आकर पाठक को झकझोर जाती है। किताब छपी भी अच्छी है। आवरण पृष्ठ और अंदरूनी ग्राफिक्स आकर्षक हैं, कहानियों के पूरक लगते हैं।

किताब छपने और मार्केट में आने के बाद ही हैदर रिज़वी चुपचाप पोशीदा हो गए, जैसे अल्फाज़ को उड़ना सिखाकर उनका काम मुकम्मल हुआ। नई शैली का शोर मचाए बिना नई ताबीर रचने वाले ऐसे अफसानों को पढ़ना तो बनता है..

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