जा, तुझे बहिश्त नसीब हो !

मिसेज साहनी की आंखें सुर्खरू हो जाती जब भी वह आलम को अपनी यादों में बसे आंगन के कंधारी अनारों की कहानी सुनाती। धीरे-धीरे अपनी ज़ाती बातों का पिटारा एक मानूस अजनबी के सामने खोलना बहुत बड़ी बात थी उनकी जैसी अक्खड़ और अनखी औरत के लिए। लेकिन लड़खड़ाते हुए उम्र की इस आखिरी दहलीज पर आलम जैसे इंसान का सहारा पाकर मिसेज साहनी का मन दोबारा हरीयाने लगा था। आलम एक एनजीओ से जुड़ा था जो अकेलेपन से गुजरते बुजुर्गों के साथ वक़्त बिताने के लिए हस्सास नौजवानों को ट्रेन करता था। आलम 2 साल से पार्ट टाइम यह काम कर रहा था और मिसेज साहनी का ज़िम्मा संभाले उसे 9 माह ही हुए थे। इन नौ महीने में आलम ने मिसेज साहनी का विश्वास जीत लिया था और अब वह आलम को घर का एक हिस्सा मानने लगीं थीं। असाइनमेंट के पहले ही रोज़ आलम जब मिसेज साहनी की साउथ दिल्ली वाली कोठी के गेट से अंदर घुसा था, अपने बरामदे में बैठी संतरा छील कर खाती हुईं मिसेज साहनी ने वहीं से चिल्ला कर कहा था, "ओए! कौन है तू ते कित्थे चला आंदा ए? किनू मिल्लना ए? सोनी...ओह सोनी! देखीं कौन है।" आलम थोड़ा शर्मसार हुआ था लेकिन यहां कौन उसे देख ...