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Showing posts from April, 2020

अल्लाह बिस्मिल्लाह मेरी जुगनी

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आखिर कौन थी जुगनी? या कौन 'है' ? हर औरत जैसी लगने वाली मगर एक रहस्यमई पहचान लिए आज़ाद जगह-जगह फिरने वाली ? ना हिन्दू, ना सिख, ना मुसलमान। ना ब्याहता, ना कुंवारी, ना रईस, ना फ़कीर। नाम अल्लाह का भी लेती है, साईं का भी, पीर, गुरु और हरि का भी ! कभी जालंधर, कभी कलकत्ता, कभी कश्मीर घूमघूम कर रूहानी फलसफे बटोरती हुई जुगनी! दाता दरबार में भी मिल जाएगी, मदीने में भी और टेनिस कोर्ट में भी! सरहद के इस पार भी और उस पार भी! आखिर कौन हुई जुगनी? पंजाब चाहे हिंदुस्तान वाला हो या पाकिस्तान वाला, 'जुगनी' का नाम लोकसंगीत में आज भी ज़ोर शोर से गूंजता है। जहां पारंपरिक चित्रों में पंजाबी महिलाएं अक्सर चरखा कातती, चूल्हे पर रोटियां सेंकती या गिद्दा डालती दिखाई जाती हैं, वहीं जुगनी एक ऐसी उन्मुक्त किरदार है, जो अलग-अलग शहरों और तजुर्बों से अकेले ही गुजरती है और अपनी आंखों-देखी के माध्यम से रूहानी फलसफे बयान करती है। इस उपमहाद्वीप में जहां इब्न बतूता, बाबा नानक और राहुल सांकृत्यायन जैसे पुरुष यात्रियों के वृतांत सराहे गए हों, वहां पितृसत्ता की लक्ष्मण-रेखा लांघ कर दुनिया घूमने वाली...

मेला : तहज़ीबों का संगम

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इक़बाल सुहैल अपनी ग़ज़ल में फरमाते हैं, "मिल-जुल के ब-रंग-ए-शीर-ओ-शकर दोनों के निखरते हैं जौहर दरियाओं के संगम से बढ़ कर तहज़ीबों का संगम होता है।" मेल-जोल का बहाना बनकर मेलों ने सदियों से तहज़ीबों को जोड़ कर रखने का काम किया है। चाहे कुम्भ मेला हो या दशहरा का मेला, गोवा का कार्निवल हो या बिहार का सोनपुर मेला, लोक संस्कृति और सामूहिक उत्तेजना के प्रतीक के रूप में मेलों का महत्त्व अद्वितीय रहा है।  नदियों किनारे लगने वाले मेलों में सबसे प्रख्यात है अर्ध कुम्भ और महाकुम्भ मेला, जो हर छः और बारह सालों के अंतराल में गंगा, यमुना, शिप्रा और गोदावरी नदी के किनारे लगता है। कुम्भ मेला सनातन धर्म की एक विशाल झांकी के समान होता है, जिसमें प्रचंड जनसमूह, बतौर दर्शनार्थी और श्रद्धालु हिस्सा लेता है। कुम्भ मेले की भीड़ को लेकर मिलने-बिछड़ने की लोकोक्तियाँ भी मशहूर हैं। साधुओं के अखाड़ों का शक्ति प्रदर्शन, आपसी टकराव, भगदड़ और जनसैलाब कुम्भ मेले से जुड़ी विशिष्टताएँ हैं।  इसी तरह मान्यता है कि  बिहार के सिमरिया में आयोजित होने वाले कुम्भ मेला का इतिहा...