मौला
कहानी देश के विभाजन से पहले की है। काँगड़ा के पहाड़ों में बसे एक छोटे से गाँव के राजपूत टोले में एक परिवार रहता था। घर में दो बेटे और माँ बाप। म्हाली हालात कमज़ोर मगर मेहनत से न डरने वाले लोग। छोटे छोटे खेतों की पट्टियों को भी अपने पुरुषार्थ से इन किसानों ने शक्कर जैसा बना रखा था। दोनों लड़के कायदे से रोज़ गाँव के मदरसे में जाया करते। जी हाँ, पहले स्कूलों को मदरसा ही कहते थे हमारे बुज़ुर्ग; जब तक माँ बोली और सूबा आंदोलनों ने भाषा को फ़िरकों में नहीं बाँटा था। तो हाँ, दोनों लड़के कायदे से रोज़ गाँव के मदरसे में जाया करते। गाँव का रास्ता जिन संपन्न ज़मींदारों के घर के आगे से होकर गुज़रता, उनके यहाँ सब इन दोनों भाईयों की टाट से बनी वर्दी और टखने से ऊँचे पजामे देखकर हँसते। उस घर की बेटियाँ आते-जाते इन भाईयों की टांगों पर शहतूत की लकड़ी से शरारतन वार भी किया करतीं। पर समाजी लिहाज़ और ज़िम्मेदारी के बोझ से लदे दोनों लड़के फिर भी सिर झुकाए अपने काम पर बदस्तूर आते जाते। बड़ा भाई पढ़ने में होशियार था, उसने उस ज़माने में दसवीं कर ली और देखते-देखते उसे पटवारी की नौकरी भी मिल गई...