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Showing posts from February, 2023

राजस्थान: सुनहरी रेत पर सजा सतरंगी ताना-बाना

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अकसर बौद्धिक बहसों में यह सवाल बार बार उठाया जाता है कि क्यों 'ब्रैंड रॉयल राजस्थान' का प्रचार सिर्फ राजशाही किलों और महलों के स्थापत्य के कारण होता है? क्यों रजवाड़ाशाही की निशानियों को प्रचार का माध्यम बनाया जाता है? क्यों अभी तक राजस्थान को शाही हैंगओवर से निकलने नहीं दिया गया? लेकिन इन बौद्धिक बहस मुबाहिसों से इतर अगर साफ़ नज़र और साफ़ नीयत से पुनर्वलोकन करें, तो यही बोध होता है कि राजस्थान की ख्याति में इस मरुभूमि के कण-कण का योगदान रहा है।  ईमानदारी से टटोलें तो क्या राजस्थान को हम सांगानेरी ब्लॉक प्रिंटिंग और मिनिएचर पेंटिंग करने वाले कलाकारों की मार्फत भी नहीं जानते हैं? क्या मांगणियारों, बंजारों, मरासियों, भोप और लंगाओं का लोकसंगीत और पारंपरिक नृत्यकला राजस्थान की वैश्विक पहचान नहीं है? भाट-चारणों की किस्सागोई, बिश्नोईयों के प्रकृति-प्रेम के अलावा जैन मंदिरों और गरीब नवाज की अजमेर शरीफ़ दरगाह भी तो राजस्थान की संस्कृति का परिचायक है। कठपुतली वाले कलाकारों को ढूंढते हुए क्या लोग राजस्थान का रुख नहीं करते? क्या सैलानी पुष्कर जैसे मेले में रेबारी समाज की पशुपा...

हीर ना आखो कोई

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"रांझन-रांझन सब कोई आखो, हीर ना आखो कोई.." वारिस शाह का लिखा 'किस्सा हीर रांझा' आज भी पॉपुलर कल्चर में रचा-बसा हुआ है। पंजाब की लोककथा 'किस्सा हीर रांझा' को सूफियाना कलाम के तौर पर मकबूल करने वाले शायर वारिस शाह चिश्ती सिलसिले के सूफी हुए। जंडियाला शेर खां (पाकिस्तान) में स्थित इनकी मजार पर हर साल मेला लगता है और अंदर बैठे साईं, वारिस शाह का लिखा कलाम 'हीर' आज भी गाते हैं। हीर-रांझा की दास्तां को अमर बनाने वाले वारिस शाह की मजार पर नवविवाहित जोड़े और वो आशिक़ अब भी आते हैं, जिनकी मुहब्बत के खिलाफ दुनिया खड़ी हो; उम्मीद में वो धागा बांधते हैं और दीवारों पर अपना नाम दर्ज कर जाते हैं, अपने पीर वारिस शाह से दुआ और हिफाज़त की अर्ज़ी लगाने के लिए।  वारिस शाह का लिखा 'किस्सा हीर रांझा' न सिर्फ अपने समय की सामाजिक और राजनैतिक उठापटक का आईना है बल्कि परमात्मा और आराधक के बीच की मुहब्बत का सांकेतिक अफसाना भी है। वारिस शाह को ये कलाम लिखे 300 साल से भी ज़्यादा बीत गए हैं, लेकिन झंग (पाकिस्तान) में बनी 'माई हीर' और 'मिया...