राजस्थान: सुनहरी रेत पर सजा सतरंगी ताना-बाना

अकसर बौद्धिक बहसों में यह सवाल बार बार उठाया जाता है कि क्यों 'ब्रैंड रॉयल राजस्थान' का प्रचार सिर्फ राजशाही किलों और महलों के स्थापत्य के कारण होता है? क्यों रजवाड़ाशाही की निशानियों को प्रचार का माध्यम बनाया जाता है? क्यों अभी तक राजस्थान को शाही हैंगओवर से निकलने नहीं दिया गया? लेकिन इन बौद्धिक बहस मुबाहिसों से इतर अगर साफ़ नज़र और साफ़ नीयत से पुनर्वलोकन करें, तो यही बोध होता है कि राजस्थान की ख्याति में इस मरुभूमि के कण-कण का योगदान रहा है। ईमानदारी से टटोलें तो क्या राजस्थान को हम सांगानेरी ब्लॉक प्रिंटिंग और मिनिएचर पेंटिंग करने वाले कलाकारों की मार्फत भी नहीं जानते हैं? क्या मांगणियारों, बंजारों, मरासियों, भोप और लंगाओं का लोकसंगीत और पारंपरिक नृत्यकला राजस्थान की वैश्विक पहचान नहीं है? भाट-चारणों की किस्सागोई, बिश्नोईयों के प्रकृति-प्रेम के अलावा जैन मंदिरों और गरीब नवाज की अजमेर शरीफ़ दरगाह भी तो राजस्थान की संस्कृति का परिचायक है। कठपुतली वाले कलाकारों को ढूंढते हुए क्या लोग राजस्थान का रुख नहीं करते? क्या सैलानी पुष्कर जैसे मेले में रेबारी समाज की पशुपा...