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सूफ़ी फाइलें | बुल्ला की जाना मैं कौन

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" बुल्ले शाह असां मरना नाहिं, गोर पेया कोई होर.."  (It is not me in the grave, it is someone else) जो सूफी शायर दिल तोड़ने की बजाय मसीतों और मंदिरों को तोड़ने की बात कहे, खुद को ना हिन्दू माने, ना तुर्क ना पेशावरी, जो किसी ऐसी जगह जा बसने की बात करे जहां जात-पात के झगड़े ना हों, जो इश्क़ की बात करे इबादत से भी पहले, ऐसे अलमस्त संत का नाम हुआ 'बाबा बुल्ले शाह', जिनका उर्स पाकिस्तान के कसूर (शहर) में उनकी मज़ार पर आज मनाया जा रहा है।  बुल्ले शाह ने इंकलबी नारे बेशक ना लगाए हों, लेकिन अपने कलाम और जीवनशैली में उन्होंने विद्रोह को ही चुना। बुल्ले शाह ने जब शाह इनायत नाम के संत को अपना गुरु माना, तो उनके समाज में खलबली मच गई क्योंकि बुल्ले शाह सय्यद थे, रुतबे में ऊंचे और शाह इनायत थे अराईं, जो शालीमार बाग (लाहौर) में माली का भी काम करते थे। पर बुल्ले शाह ने बहनों-भाभियों की दलीलों को अनसुना कर अपने गुरु का दामन नहीं छोड़ा।  बुल्ले नूँ समझावन आँईयाँ भैनाँ ते भरजाईयाँ 'मन्न लै बुल्लेया साड्डा कैहना, छड्ड दे पल्ला राईयाँ आल नबी, औलाद अली, नूँ तू क्यूँ लीकाँ ला...