हीर ना आखो कोई

"रांझन-रांझन सब कोई आखो, हीर ना आखो कोई.."

वारिस शाह का लिखा 'किस्सा हीर रांझा' आज भी पॉपुलर कल्चर में रचा-बसा हुआ है। पंजाब की लोककथा 'किस्सा हीर रांझा' को सूफियाना कलाम के तौर पर मकबूल करने वाले शायर वारिस शाह चिश्ती सिलसिले के सूफी हुए। जंडियाला शेर खां (पाकिस्तान) में स्थित इनकी मजार पर हर साल मेला लगता है और अंदर बैठे साईं, वारिस शाह का लिखा कलाम 'हीर' आज भी गाते हैं। हीर-रांझा की दास्तां को अमर बनाने वाले वारिस शाह की मजार पर नवविवाहित जोड़े और वो आशिक़ अब भी आते हैं, जिनकी मुहब्बत के खिलाफ दुनिया खड़ी हो; उम्मीद में वो धागा बांधते हैं और दीवारों पर अपना नाम दर्ज कर जाते हैं, अपने पीर वारिस शाह से दुआ और हिफाज़त की अर्ज़ी लगाने के लिए। 

वारिस शाह का लिखा 'किस्सा हीर रांझा' न सिर्फ अपने समय की सामाजिक और राजनैतिक उठापटक का आईना है बल्कि परमात्मा और आराधक के बीच की मुहब्बत का सांकेतिक अफसाना भी है। वारिस शाह को ये कलाम लिखे 300 साल से भी ज़्यादा बीत गए हैं, लेकिन झंग (पाकिस्तान) में बनी 'माई हीर' और 'मियां रांझा' की मजार हो या लहंडा पंजाब में पीर वारिस शाह की आरामगाह, आज भी आम-जन इन जगहों पर तीर्थ की तरह आते हैं।

लेकिन कहीं पढ़ा था कि लोग अपनी बेटियों के नाम हीर नहीं रखते और युवा लड़कियों को कलाम 'हीर' सुनने की इजाज़त नहीं दी जाती क्योंकि कुछ लोग नहीं चाहते कि हीर सलेटी की तरह उनकी बेटियां भी मुहब्बत के बगावती रास्ते पर चल पड़ें।

जब अमृता प्रीतम ने विभाजन की मारकाट से दुखी होकर अपनी मशहूर नज़्म 'अज्ज आखां वारिस शाह नूं' में बाबा वारिस शाह को आवाज़ दी, तब कइयों ने सवाल उठाया कि वारिस शाह की बजाए बाबा नानक या स्टालिन/लेनिन को क्यों नहीं मोहजू बनाया? अब बताएं, जिस वारिस शाह ने हीर के दर्द से दुनिया को मुतार्रिफ करवाया हो, उससे बेहतर जंग-ओ-सियासत की शिकार औरतज़ात का दर्द भला कौन समझता। पंजाब की ज़मीन को सूफियाना इश्क के खाद-पानी से सींचने वाले बाबा वारिस शाह जैसे पीर के चलते ही आज वो 'हीर' से 'माई हीर' बनकर मशहूर हो गई और उसकी मज़ार आशिकों की आखिरी पनाहगाह बन गई। 

क्या अजीब बात है कि जिस सरजमीं पर किस्सा-ए-हीर-रांझा पढ़ा-सुनाया जाता हो, जहां वारिस शाह अपनी मशहूर काव्य रचना 'हीर' की शुरूआत 'पांच पीरों' की आह्वान के साथ करे,
जहां 'हीर' लिखने वाले सूफी शायर को पीर का रुतबा मिले, जहां हीर सियाल को माई हीर बुलाया जाए, वहीं कितनी ही हीर-नुमा औरतों के चुने रास्ते पर 'कारो कारी' या 'लव जिहाद' के नाम पर 'चाचा कैदों' आज तक पहरे लगाए बैठे हैं।

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